- प्रदीप रावत ‘रवांल्टा’
यह सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं, बल्कि एक महिला के दर्द, संघर्ष और विजय की एक सच्ची गाथा है। टिंचरी माई : द अनटोल्ड स्टोरी, पर्दे पर उत्तराखंड की माटी से निकली उस कहानी को दिखाती है, जिसे देखकर आपकी आंखें नम हो जाएंगी। इस फ़िल्म में जो मेहनत, जज़्बा और जुनून लगा है, वह बेशकीमती है। और वह पर्दे पर भी नज़र आता है।
मैं भी इस फ़िल्म को देखने गया, तो मन में बहुत से सवाल थे। ट्रेलर देखकर मैं खुश नहीं था, पर मन में एक उम्मीद थी कि शायद यह कहानी कुछ और होगी। यह उम्मीद सच साबित हुई। यह फ़िल्म सिर्फ़ देखी नहीं जाती, बल्कि महसूस की जाती है। यह एक ऐसी कहानी है, जो आपको भीतर तक निचोड़ कर रख देती है, और जब आप बाहर निकलते हैं, तो आप पहले से अधिक मज़बूत महसूस करते हैं, जो मैंने भी किया।
ठगुली देवी… एक मासूम बच्ची, जिसकी उम्र महज़ 13 साल थी, लेकिन हालातों ने उसे बचपन जीने का मौका ही नहीं दिया। 24 साल के युवक से उसकी शादी कर दी गई। उस उम्र में, जब गुड़ियों से खेलने और सपने देखने चाहिए थे, ठगुली ने दुनिया की वो कड़वी हकीकतें देखीं, जिनकी कल्पना भी रूह को कंपा देती है। शुरुआत में ठगुली देवी अपने पति के साथ क्वेटा (पाकिस्तान) तक पहुंचती है। पति फौज में था और वही उसके जीवन का सहारा। वहां ठगुली पहली बार खुशियां जीती है। पति उसे बच्ची की तरह मानता, उसके साथ खेलता। ठगुली की दुनिया में कुछ समय के लिए धूप खिली, लेकिन ये उजाला ज्यादा दिन न टिक सका।
विश्व युद्ध छिड़ा और ठगुली का पति शहीद हो गया। उसके जीवन की सारी खुशियां एक झटके में राख हो गईं। घर लौटी तो समाज ने उसे “कुल्टा” और “अपशकुनी” कहकर घर से निकाल दिया। वह ठौर-ठिकाना खोजती रही। एक रिटायर्ड फौजी ने उसे बेटी की तरह अपनाया और उसके बच्चों को भी सहारा दिया। लेकिन नियति को शायद और दर्द लिखना था। हैजे की महामारी में उसके दोनों बेटे और वह सहारा देने वाला इंसान भी चल बसा।
यह वही पल था जिसने ठगुली को भीतर से तोड़ दिया। मां के हृदय से बच्चों का वियोग उसे पागल बना गया। भटकते-भटकते वह हरिद्वार पहुंची। वहां एक साध्वी ने उसे शरण दी और वही उसकी गुरु मां बनीं। इसी ने उसे “इच्छा गिरी” नाम दिया। परंतु उसकी तकदीर को अब भी चैन नहीं मिला। गुरु मां की मौत और दरिंदों की दरिंदगी ने उसके भीतर की नारी को जला दिया। लेकिन, ठगुली हारने वाली नहीं थी। वह राख से उठी, और धीरे-धीरे “इच्छा गिरी माई” बनकर समाजसेवा में जुट गई। उसने शिक्षा के लिए लड़ाई लड़ी, स्कूल खुलवाए, गरीबों के हक की लड़ाई लड़ी।
गढ़वाल में उस समय “टिंचर” नाम की दवा से शराब बनाई जाती थी। यह लत पूरे समाज को खोखला कर रही थी। लोग बर्बाद हो रहे थे, घर उजड़ रहे थे। इच्छा गिरी माई ने इसके खिलाफ आवाज उठाई, पर सरकार ने अनसुना कर दिया।
एक दिन उन्होंने गुस्से में खुद टिंचरी की दुकान में आग लगा दी। उसी दिन से वह “टिंचरी माई” कहलाने लगीं। यह नाम सिर्फ गुस्से का प्रतीक नहीं था, बल्कि समाज की नशे के खिलाफ लड़ाई का प्रतीक बन गया।
टिंचरी माई का जीवन, विवाह से पहले भी, एक अग्निपरीक्षा से कम नहीं था। जब वह अभी घुटनों से उठकर अपने पैरों पर चलना सीख रही थीं, तभी माता-पिता का साया उनके सिर से उठ गया। यहीं से उनके जीवन का संघर्ष शुरू हुआ, जो एक परछाई की तरह उनका पीछा करता रहा, हर मोड़ पर उन्हें गिराने की कोशिश करता रहा।
लेकिन, वह गिरी नहीं। इसके बजाय, उन्होंने समाज की उन कुरीतियों को ही घुटनों पर ला दिया, जिन्होंने उन्हें कमज़ोर करने की कोशिश की थी। उनकी कहानी सिर्फ़ ज़िंदा रहने की नहीं, बल्कि लड़ने और जीतने की कहानी है।
फिल्म का प्रभाव और समीक्षा
फिल्म की सबसे बड़ी ताकत इसकी सच्चाई और भावनात्मक गहराई है। निर्देशक ने कहानी को नाटकीय बनाने की बजाय जीवन की असलियत को दिखाने का साहस किया है। कलाकारों का अभिनय इतना वास्तविक है कि आप भूल जाते हैं कि यह एक फिल्म है, और महसूस करने लगते हैं कि यह सब आपके सामने घट रहा है।
पहला हाफ बहुत तेज़ और बांधे रखने वाला है। दूसरा हाफ थोड़ा धीमा पड़ता है, लेकिन जैसे ही टिंचरी माई का असली संघर्ष सामने आता है, फिल्म फिर से रफ्तार पकड़ लेती है। फिल्म का क्लाइमैक्स ज़रूर और दमदार बनाया जा सकता था। खासकर मॉडर्न टिंचरी माई की भूमिका में कुछ और गहराई दिखाई जाती, तो यह और भी असरदार होती। पत्रकारिता से जुड़े दृश्य थोड़े बनावटी लगे, लेकिन कुल मिलाकर यह छोटी कमजोरियां फिल्म की आत्मा को कमज़ोर नहीं करतीं।
क्यों देखें यह फिल्म?
यह सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक औरत की अदम्य हिम्मत और समाज के खिलाफ खड़ी उसकी आवाज़ की कहानी है। यह हमें सिखाती है कि चाहे कितनी भी विपत्तियां आएं, इंसान यदि ठान ले तो समाज बदल सकता है। टिंचरी माई : द अनटोल्ड स्टोरी, देखते हुए आप खुद महसूस करेंगे कि आपकी अपनी परेशानियां कितनी छोटी हैं। यह फिल्म दर्द देती है, आंसू लाती है, लेकिन अंत में एक आग भी भर देती है, अन्याय और बुराइयों के खिलाफ खड़े होने की। कुल मिलाकर यह फिल्म उत्तराखंड की धरोहर है और हर उस इंसान को देखनी चाहिए जो यह मानता है कि बदलाव संभव है।